Tuesday 25 December 2012

अविचल पहाड़

खड़ा था पहाड़
अटल-अविचल
नभ को नापता
सूरज को तापता
आंधियों ने
वो अविचल पहाड़
हिला दिया
काट-तोड़-फोड़
हवाओं ने वो पहाड़
मिट्टी में मिला दिया !

उलट पुलट कविता

डोर के पीछे पतंग भागा ।
बिल्ली के पीछे चूहा भागा।।
कार बैठी जा बस के भीतर।
आम बैठा गुठली के भीतर।।
कूआ मिला पानी के भीतर ।
राजा मिला रानी के भीतर।।

प्रीत की साख

निराशा के थेहड़ में भी
आशा की उज्ज्वल किरण
सुरक्षित है हमारे लिए
जो आ ही जाएगी
आत्मीय स्पर्श ले
हमारे सन्मुख
समय के साथ
इस लिए
मैं कर रहा हूं इंतजार
समय के पलटने का ।

समय दौड़ रहा है
आ रहा है समीप
या जा है रहा दूर
अभी तो देता नहीं
वांछित ऐहसास
आश्वस्त हूं मगर मैं
एक हो ही जाएगा
हमारे सन्मुख नतमस्तक !

इसी लिए
कहता हूं प्रिय
तुम भी करो इंतजार
बैठ कर अपने भीतर
बदलते समय का
यही आएगा
बन साक्षी
भरने प्रीत की साख !

आती नहीं हंसी

हंसी तो आती है
मगर वक्त नहीं अभी
खुल कर हंसने का
जब नत्थू रो रहा
अपनी बेटी के हाथ
पीले न कर पाने के गम में
धन्नू की भाग-दौड़
थम नहीं रही
खाली अंटी
पुत्र का कैंसर टालने मैं ।

वोट भी डालना है
अभी अभी
डालें किसे
सभी लिए बैठे हैं
वादों की इकसार पांडें
भाषणों की अखूट बौछारें
इरादे जिनके साफ
वोट डालो तो डालो
न डालो तो मत डालो
छोड़ें तो छोड़ें
मारें तो मारें
हम ही बनाएंगे सरकारें
ऐसे में हंसी आए भी तो कैसे !

फिर भी
हंस ही दिया था
गरीबी की रेखा के नीचे
बरसों से दबा
रामले का गोपा
नेता जी के सामने
भारत निर्माण का
विज्ञापन देख कर
तीसरे ही दिन
पोस्टमार्टम के बाद
मिल गई थी लाश
बिना किसी न्यूज के
उठ गई थी अर्थी
उस दिन जो थमी
आज तलक नहीं लौटी
हंसी गांव की !

अब तो
बन्द कमरे में
हंसते हुए भी
लगता है डर
सुना है
दीवारों के भी
होते हैं कान
लोग ध्यान नहीं
कान देते है
इस में भी तो
बात है हंसी की
मगर
दुबक कर कभी भी
आती तो नहीं हंसी !

चिंताएं

कितनी देर चलूंगा
कितनी दूर चलूंगा
ज्ञात नहीं
तभी तो थक जाता हूं
अनजान राहों पर
चलते-चलते मैं ।

भाड़े का पगेरु
मांदा मजदूर
थक कर भी
नहीं थकता कभी
जानी पहचानी राहों पर ।

मैं
थक कर
सो जाना चाहता हूं
अगले काम के लिए
वह
सो कर
थकना नहीं चाहता
अगले काम के लिए ।

मेरी और उसकी यात्रा में
लाचारी प्रत्यक्ष है
फिर अंतर क्यों आ जाता है
हमारी थकावट में ।

शायद
उसकी यात्रा में
प्रयोजन पेट
मेरी यात्रा में
प्रयोजन चिन्ताएं हैं
चिन्ताएं भी सिरफिरी ;
यह यात्रा तो
कोई मजदूर भी कर लेता
अगर दिए होते
सो पच्चास !

Thursday 27 September 2012

म्हारी दोय राजस्थानी कवितावां

आओ आपां बात करां

=================

आओ !
आपां बात करां
छोटै-छोटै मुंडां
बडी-बडी
बात करां !


ऐकर फ़ेरूं
गोरधन नै
चिटूली माथै ऊंचां
किरसन नै उडीक्यां बिन्यां
कंसां नै मारां !
महाभारत सारू
त्यार खडी़
अपघात्यां री फ़ोजां नै
धूड़ चटावां !
आओ !
आपां बात करां
छोटै-छोटै मुंडां
बडी-बडी
बात करां !


सत्ता हथियावण
बेमेळ भेळा होयोडा़
भूपत्यां नै बकारां
सत्ता री दरोपती रो
चीर हरण होवण सूं पै’ली
लाज बचावां !
आओ !
आपां बात करां
छोटै-छोटै मुंडां
बडी-बडी
बात करां !


चौपड़ माथै
पास्सा फ़ैंकतै धरमराज नै
हारण सूं पै’ली उठावां
कौरवां नै समझावां
अर
पांडवां नै पांच गांव दिरावां !
आओ !
आपां बात करां
छोटै-छोटै मुंडां
बडी-बडी
बात करां !

============
आपां काईं करस्यां
===========


जद भैंरूं जी
सवामणी री परसादी
जीम’र भी
जे साध नी पूरी तो
आपां उण टैम काईं करस्यां ?


दारू रो
पूरो गेळण गटक
समूळो बकरियो भख
माताजी नी तूठ्या
अर
हड़मानजी री देवळी री
इक्कीस फ़ेरयां रै बाद भी
हड़मान बाबै
भूत नीं काढ्यो तो
आपां उण टैम काईं करस्यां ?


डोरा-मादळिया
अनै सात-सात झाडां रै बाद भी
मल्लू बरडा़वणो नीं छोड़्यो
देवळ्यां साम्हीं
झडू़लो उतारयां पछै भी
जे गोरियै
हकळावणों नीं छोड्यो
अर मंगळियै रै गोमदै
खोडा़वणो नी छोड्यो तो
आपां उण टैम काईं करस्यां ?


आपां रै साथै ई
देई-देवता
पित्तर-भोमियां
डाकण-स्याकण
डोरा-मादळिया
झाडा़-टूणां ई जे
आगलै सईकै पूगग्या तो
आपां उण टैम काईं करस्यां ?

Saturday 8 September 2012

ताऊ जी का दिल्ली में राजस्थानी कविता पाठ

हिन्दी अकादमी , दिल्ली व कला,संस्कृति एवम भाषा विभाग, दिल्ली सरकार की और से नई दिल्ली के विद्या भवन में 6-7 सितम्बर 2012 को आयोजित  भारतीय भाषाओं के समागम "भारतीय कविता बिम्ब " में मेरे ताऊ जी श्री ओम पुरोहित "कागद" ने राजस्थानी भाषा का प्रतिनिधित्व करते हुए राजस्थानी कविता पाठ किया । इस कार्यक्रम के मुख्यातिथि थे नन्द भारद्वाज जी !



"भारतीय कविता बिम्ब " में भारतीय भाषाओं के 22 कवियों ने भाग लिया ! डा.बलदेव वंशी,विष्णु खरे,नन्द भारद्वाज ,लालित्य ललित ,मदन कश्यप, विमल कुमार,सूरजपाल चौहान , इन्दिरा मोहन ,डा.बालस्वरूप राही, डा, हरमोहिन्दर सिंह बेदी, डा, गंगा प्रशाद विमल ,श्रीमती अल्का सिन्हा एवम [हिन्दी], डा.एच.के.कौल [अंग्रेजी], इकबालशहर[उर्दू],डा. जे.शेरिफ़ [तेलगु] ,अमरजीत घुम्मण [पंजाबी] , शुभाशीष भादुडी [ बांग्ला] , ओम पुरोहित "कागद"[राजस्थानी ] , मनप्रसाद सुब्बा [नेपाली ] ,प्रतिभा नन्द कुमार [कन्नड़] , डा. रशीद मीर [गुजराती ] , डा. एन.चन्द्रशेखरन [तमिल] , डा.अनुपम निरंजन उजगरे [मराठी], विनोद असुदानी [ सिंधी],मोहन सिंह [डोगरी] , डा, सैयद सिराजुद्दीन अज़मली [उर्दू], डा. सोनिया सिरसाट [कोंकणीं] , मोईराड़ थेम बरकन्या [मणिपुरी] , शेफ़ाली वर्मा [मैथिली] , श्रीकृष्ण सेमवाल [संस्कृत] , वी , के.जोशी [अंग्रेजी],सुशी गायत्री बाला पण्डा [ ओडिया] , अरविन्द राव [कन्नड़] , बृजनाथ बेताब [कश्मीरी] सुरजीत जज [पंजाबी] सुशी लीला ओम चैरी [मलयालम ] ने चार अलग-अलग गोष्ठियों मे अपनी कविताओं का पाठ किया ।

Tuesday 28 August 2012

अपना घर

दिखने में
बहुत छोटा है
मेरा घर
इस में
समा जाती है
सारी दुनिया
मगर
घर से बाहर
रखते ही कदम
आ जाता है परदेस
आता नहीं नज़र
अपना घर !
सोचता हूं
जब आदमी
अपने घर से
दूर हो जाता है
तब वह कितना
मजबूर हो जाता है !
समतल मैदान में
खुले आसमान तले
परिजन के बीच बैठा
कहता है नत्थू
घर के लिए
जरूरी नहीं है
दीवारों पर टिकी
मजबूत छत का होना
जरूरी है
अपनत्व पर टिकी
प्यार-स्नेह
अपनत्व की महक
जो रख सके
बांध कर सब को
अपने सम्मोहन में !
सचमुच
बहुत खुश है नत्थू
अपने घर में
सवाल तो है
भवन की जगह
कब बनाएंगे हम
अपना-अपना घर ?
============
.
कुछ लोग जी रहे हैं
पेप्सी और कोलगेट
बर्गर और चॉकलेट के लिए
नत्थू जी रहा है
बच्चों के पेट के लिए ।

सपनों की उधेड़बुन

एक-एक कर
उधड़ गए
वे सारे सपने
जिन्हें बुना था
अपने ही खयालों में
मान कर अपने !
सपनों के लिए
चाहिए थी रात
हम ने देख डाले
खुली आंख
दिन में सपने
किया नहीं
हम ने इंतजार
सपनों वाली रात का
इस लिए
हमारे सपनों का
एक सिरा
रह जाता था
कभी रात के
कभी दिन के हाथ में
जिस का भी
चल गया जोर
वही उधेड़ता रहा
हमारे सपने !
अब तो
कतराने लगे हैं
झपकती आंख
और
सपनों की उधेड़बुन से !

आदमी और भगवान

सब कुछ
कर सकता था
संवेदनशील आदमी
कुछ न कर पाया
यहां तक कि
अपना विश्वास तलक
जमा नहीं पाया
आदमी
पत्थर हो गया
पत्थर
हो गया भगवान
भगवान
दिखता नहीं
करता है मगर
सब कुछ
है विश्वास सबको !
देश तुम से नहीं
----------------
नेता जी गरजे
देश आजाद है
तुम नहीं
क्यों कि तुम
देश नहीं हो !
सुन लो
कान लगा कर
देश तुम से नहीं
हम से है
हम, तुम से नहीं
दम से हैं !
वोट ले कर आए हैं
वोट की कीमत
अदा की है
तुम ने भी
वोट डाल कर
अपनी ड्यूटी
अदा की है !
अब तुम
अपने घर जाओ
काम करो और खाओ
हमें राज करने दो
राज-काज में बाधा
अपराध है संगीन
मारे जाओगे !
अब सुनो !
बार-बार तुम
मांग पत्र ले कर
मत आया करो
मांग भरना
हमारा काम नहीं
हम तो राजा हैं
कोई दूल्हे राजा नहीं !

Monday 27 August 2012

आप से पूछा जाएगा

बहुत दिन हुए
कदमों में गिड़गिड़ाते
भीड़ के लोग आएंगे
वो हाथ नहीं फैलाएंगे
अपना हिस्सा बताएंगे !

तान कर मुठ्ठियां
बढ़ रहे हैं लोग
मांग कर नहीं
छीन कर खाएंगे अब
अपने हिस्से की रोटियां
जो आएगा बीच इसके
उसकी बिखेरेंगे बोटियां।

उत्तर तलाश लो अभी
आप से पूछा जाएगा
ठाल्लों की तोंद फैली
महनतकश की पिचकी
क्यों कर है बताइए
गरीब भूखा सोया क्यों
जुर्म खोल कर जताइए?
 
भोली बकरी
========

सुन
भूखी-भोली
नादान बकरी
आएगा कोई
दर तेरे
आ कर
तुम्हें चराएगा !

तूं बहुत भोली है
चर ले
चाहे जितना
चरना है
आखिर तो
तुझको मरना है !

पेट की खातिर
तुम ना बोली
भेंट की खातिर
वो तो बोला है
भर ले पेट
जितना भरना है
आखिर तो बकरी
तुझको मरना है !

पेड़ खड़े रहे

धरती से थी
प्रीत अथाह
इसी लिए
पेड़ खड़े रहे ।

कितनी ही आईं
तेज आंधियां
टूटे-झुके नहीं
पेड़ अड़े रहे ।

खूब तपा सूरज
नहीं बरसा पानी
बाहर से सूखे
भीतर से हरे
पेड़ पड़े रहे !
 
*आज जाना*

गांव में गाय ने
खूंटे पर बंधने में
जद्दोजहद की
आखिर भाग गई
बाड़ कूद कर
घूंघट की ओट में
तब तुम
क्यों हंसीं थी
खिलखिला कर
आज जाना
जब चाह कर भी
नहीं लौट सकी
बेटी ससुराल से !

यादें तुम्हारी

यादें तुम्हारी
मीठी हैं बहुत
फिर क्यों टपकता है
आंखो से खारा पानी
जब-जब भी
सुनता-देखता हूं
तुम्हारी स्मृतियों की
उन्मुक्त कहानी !

दिल में
यादें थीं तुम्हारी
जिन पर
रख छोड़ा था मैंने
मौन का पत्थर
इस लिए था
दिल बहुत भारी ।

आंखों में थीं
मनमोहक छवियां
कृतियां-आकृतियां
लाजवाब तुम्हारी
जिनके पलट रखे थे
सभी पृष्ठ मैंने
अब भी चाहते हैं
वे अपनी मनमानी
इसी लिए टपकता है
रात-रात भर
लाल आंखो से
श्वेत खारा पानी ।

हर रात
ओस बूंद से
क्यों टपकते हैं
आंसू आंख से
घड़घड़ाता है
उमड़-घुमड़ दिल
जम कर कभी
क्यों नहीं होती बारिश !
 
.
*मेरा मीत *

चित चुराए
महक तुम्हारी चोर
हवा में बिखेर
पुष्प इतराया
ओढ़ विशेषण
झुक-झुक आया
गया वसंत
तब से मौन
मेरा मीत
मेरे भीतर
अब भी महके
पुष्प बता
अब तेरा कौन ।

*घंटी*

आ गई अंटी
बजा गई घंटी
स्कूल में आए
बबली-बंटी
मर गया नेता
बज गई घंटी !

*शोर*

हम बच्चों से
क्यों बोले बाबा
चुप रहो
मत शोर करो
घर को स्कूल समझ
मत बोर करो
शोर कहीं ओर करो !

*आना-जाना*

बाद में आना
जल्दी जाना
सरजी से जाना है
सरजी की मरजी को
हमने भी अपनाना है ।

*होमवर्क*

स्कूल नहीं
वह नर्क है
जिस में मिलता
होमवर्क है !

*बस्ते*

मास्टर जी नमस्ते
कम्प्यूटर हो गए सस्ते
अब तो हटवा दो सरजी
किताब - कॉपी बस्ते !

हद

आओ तोड़ दें सब हदें
नई बनाएं अपनी हदें
न तुम उस से गुजरना
न मुझे विवश करना
हद की भी हो जाए हद
तब भी हम नहीं,रहे हद

बांझ नहीं है मरुधरा

तपते सूरज का
देख क्रौध अपार
रेत चली रिझाने
चढ़ आई आसमान
ताकि भेज दे
अपना जाया सुत
धरती का बिछुड़ा
बादल भरतार !

जन देगी
धरा रजस्वला
हरियल पूत
पा कर
बूंद भर प्रीत
जानती है रेत
बांझ नहीं है
वियोगन है मरुधरा !
 
दिन की मौत
========

न जाने किस की याद में
गुजर ही गया
एक अकेला दिन
इस रात की तन्हाई में
दिन की मौत पर
बांच रहा है मर्सिया
एक अकेला चांद
मातम पुरसी को
आए हैं तारे अनेक
आसमान रोके बैठा है
आंखो में असीम आंसू
जो झर ही जाएंगे
कभी न कभी !

माँ की भाषा

माँ ने जो दी भाषा
उस मेँ
बहुत मिठास था
अपार था प्यार
सार था जगत का
तभी तो
सिमट आते थे
सारे सुख
सपने जगत के
माँ की गोद में ।

आज हम ने
सीख ली हैं
बहुत सी भाषाएं
भाषाओं पर आरूढ़
फैल गया है जगत
करीने से चहुंदिश
सज गए हैं सुख
मगर नहीं है
माँ की भाषा
तभी तो लगता है
कितने सिमट गए हैं
सुख जगत के !

माँ ने कहा था
जड़ हो या चेतन
सब को करो प्यार
सब भूखे हैं प्यार के
प्यार में बंधा
लौट आता है
सीमाएं तोड़ कर
माँ !
क्यों नहीं लौटी तुम
नहीं दिखा शायद तुम्हें
मेरे परिवेश में
कहीं भी प्यार !

मुझे याद है
तुम ने कहा था
यदि इस घर में
रहेगा सम्पत और प्यार
तभी रहूंगी मैं !

शब्दों का संवेदन

* शब्दों का संवेदन*
इस ने बोले
उस ने बोले
बोली दुनिया सारी
एक-एक शब्द की
बांध पोटली
ऊंच चले
शब्दोँ के व्यपारी !

तेरे हाथ
कलम लगी तो
बन बैठे तुम व्यवहारी
एक-एक शब्द को
बांच-टांच कर
रच दी माया सारी !

इस माया नगरी में
अब खोये शब्द अमोले
न वो बोले
न तुम बोले
शब्द मांगते अपनी
डूबी आज उधारी
कलम नौचती
कागज बैठी
रोता संवेदन
कैसी ये लाचारी !

दो कविताएं

*शब्द ढाई*
अथाह गहरइयों से
उतरते हैं शब्द
विचरते हैं
अखिल जगत में
पाते हैं व्यंजना
फिर होते नहीं
नष्ट कभी
जैसे कि
स्नेह प्रीत !

दिल की गहराइयों से
निकले शब्द ढाई
प्यार-प्रीत-स्नेह
एक-एक मेरा
एक-एक तेरा
आधा-आधा
देने गवाही !
 
*बेजुबान पुष्प*

मैंने
नहीं तोड़ा
कोई पुष्प
छोड़ दिया
टहनियों पर
हवा के संग
उन्मुक्त लहलहाने ।

आया कोई
देवप्रिय धर्मपालक
तोड़ कर
देव मूर्ति पर चढ़ाने
चल दिया बेजुबान
लाचार सा पुष्प
बैठ उसकी अंजुरी
कभी नहीं मांगा
बोल पाने का
एक वरदान
देवउपासक ही
पूरते रहे
अपने अरमान !

बात

*सपना टल गया*
कल तुम आईं
नींद टल गई
सपना मचल गया
लो आज फिर
नींद उचट गई
आज फिर
सपना टल गया !

दिन को
दिन के लिए
रात को
रात के लिए
नींद को
नींद के लिए
छोड़ दो अब
बहुत खलल हो गया !

तुम अब
सपनों में आना
छोड़ दो
आ जाओ साक्षात
जमाना बदल गया ।
 बात
.
बात को
बात पर रख ।
हाथ को
हाथ पर रख ।।

ताक़त को
ताक पर रख ।
इज्जत को
नाक पर रख ।।

*चिंताएं*

कुछ लोग
रोटी के आकार पर
लड़ रहे थे
रोटी हो तो गोल हो
वरना चौकोर परांठा ठीक
कुछ और लोग
रोटी के चुपड़े होने पर
उलझ रहे थे
रोटी हो तो चुपड़ी हो
घी घर का हो
कुछ कह रहे थे
ताज़ा मक्खन ही हो
वरना क्या रोटी ?

रोटी के साथ
सब्जी पर भी
छिड़ गई जंग
कुछ हरी के पक्ष में थे
कुछ पनीर पर अड़े
कुछ सूखी के लिए लड़े
कुछ दाल-मोगर
कुछ बेसन गट्टा-कढ़ी
कुछ चटनियों पर डटे
अंत में सब की बात
करीने से रख ली गई ।

कुछ बेघर लोग
शहर से दूर
इस बात पर
एकजुट एकमत थे
आज की शाम रोटी हो
चाहे किसी भी अन्न की
किसी भी आकार प्रकार की
किसी भी घर-दर की
किसी भी जाति-धर्म की।

टाट-सरकंड़े
पॉलिथिन तप्पड़ की
इन झोंपड़ पट्टियों में
चिंताओं का विषय
घी-सब्जी-चटनी
एक बार भी नहीं बना
जब कि किसी के लिए
नहीँ था बोलना मना !

प्यार और प्यास

कुछ लोग
ढूंढ़ रहे थे
प्यार और प्यास में
एकाकी समानता
कुछ ने तो
कर ही दी स्थापना
इस स्वयंभु सत्य की ।

सत्य जब
छन कर आया
ऐहसास पाया ;
प्यास नहीं है प्यार
प्यास तो बुझ जाती है
मंतव्य पा कर
प्यार मगर बढ़ता है
बढ़ता ही जाता है
मुकाम पा कर ।
प्यास
बादलों की उड़ीक में
धीरज खो गई रेत
उड़ कर हवा संग
पहुंच गई आकाश में
बादलों को नोचने
रेत विहीन धरती
पपड़ा गई
आसमान ताकते ताकते
प्यास भर तो बरस
रेत के समन्दर में !

संधियों में जीवन

लगातार कलह
मानसिक ऊर्जा का
शोषण करती है
परस्पर संवाद रोक कर
आगे बढ़ने के
मार्ग अवरुद्ध करती है
बस इसी लिए
हताशा में
संधिया करनी पड़ती हैं।

संधियों की वैशाखियोँ पर
जीवन आगे तो बढ़ता है
अविश्वासों का मगर
सुप्त ज्वाला मुखी
भीतर ही भीतर
आकार ले कर
भरता रहता है
यह कब फट जाए
आदमी इस संदेह से
डरता रहता है ।

इसी बीच
अहम और वहम
आपस में टकराते है
इस टकराहट में
संधिया चटख जाती हैं
संधियों पर खड़े
आपसी सम्बन्ध
संधियों के टूटते ही
बिखर जाते हैं ।

बहुत पहले
कह गए थे रहीम
"धागा प्रेम का
मत तोड़ो
टूटे से ना जुड़े
जुड़े गांठ पड़ जाए "
आज मगर धागे
गांठ गंठिले हो गए
आदमी अहम के हठ में
कितने हठिले हो गए !

बाण

बाण तो बाण है
दोन्यां में हाण है
बाबो पीवै सुल्फी
टाबर खावै गुल्फी !
बाबो टाबर नै मारै 
बाबै नै कुणसो मारै ?